वो इक शाख पर बैठा कबूतर ढूंढ़ रहा है
डालकर दाने जो पंख काट ले वो कहां है
आती है ख़ुशबू सुबह में भीगे गेसुओं की
सनम कहीं दिखा नहीं सिर्फ़ चाय यहां है
मिल जाएं बिखरे पड़े मोती कहीं रेत पर
मान लो मुहब्बत में अब तो समंदर वहां है
टोकता है वाइज़ रोज़ मैखानें में आने से
मस्ज़िद के बंदे को क्या पता ख़ुदा कहां है
रहता है टेबल खाली आज कल शेख़ का
सुने कौन नमाज़ी सा वहीं सोज़-ए-निहाँ है
- उदयन गोहिल
सोज़-ए-निहाँ ~ छुपी हुई जलन
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