Friday 17 March 2017

दर-ए-दैरो-ओ-हरम बहुतों की पुरानी आदत है

दर-ए-दैरो-ओ-हरम बहुतों की पुरानी आदत है
सिवां मुहब्बत-ए-सनम चौतरफा हमारी बग़ावत है

रहा जुदा यहां मज़हब ओ ख़ुदा हर दूजे घर में
सनम की खनकती पायल अभी भी हमारी इबारत है

खाली हाथ लौटा वो फकीर सब दरवाजों से
कैसे करे अब सामना उसका यहीं हमारी आफ़त है

हसरतों का महल मेरा, रोशन तेरे जमाल से
तेरी चूड़ियों की झंकार हमारी नमाज ओ इबादत है

देखे तो क्या खूब सख्त बंटवारा ये लकीरों का
वो वसन्त रागिनी, अनछुआ साज हमारी नज़ाफ़त है

आयी हो अब की बार हिचकीयां रात उसे भी
थका हो शायद, सुबह हमें भूलने की हमारी इजाज़त है

संगेमरमर सा हुस्न दफ़न हो ताज़ की कब्र में
तेरे आँखों के लहजे पे गिरती हमारी दिल-ए-नजाकत है

- उदयन

दर-ए-दैरो-ओ-हरम - doors of temple and mosque
इबारत - writing
नज़ाफ़त - purity

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