है सफ़र बहुत लंबा और नज़रीया कि सनम बुलाएं
कभी हम सताएं कभी वो सताएं पर चाहत जताएं
है इश्तियाक़ हर मोड़ पे जिंदगी की तासीर बनी रहे
दोपहर से घनी शाम तक जूल्फ़ें उसकी हम बनाएं
सज संवरकर आये लबों पर हलकी लाली लगाकर
मिटाएं जब भी वो, आँखों की चाहत में हमें छिपाएं
या अली, तख़्त ओ ताज़ ओ हकूमत की चाह नही
संगेमरमर सा तराशा हुआ हुस्न, संग शाम बिताएं
है बाकी क्या अब तो कह दिया जो इतना 'उदयन'
हो क़ायनात में जनम दूज़ा, यही हमसफर कमाएं
- उदयन
इश्तियाक़ ~ चाह
तासीर ~ प्रभाव
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